योग क्या है ? - what is yoga
योग’ शब्द संस्कृत भाषा की ‘युज्’ धातु से बना है जिसका अर्थ ‘मिलाना’ या ‘जोड़ना’ होता है। इसे शरीर, मस्तिष्क और आत्मा के संयोजन के रूप में देखा जा सकता है और साहित्य में इसका प्रयोग लक्ष्य के साथ-साथ साधन के रूप में भी किया जाता है। लक्ष्य के रूप में योग उच्चतम स्तर पर ‘व्यक्तित्व के एकीकरण’ को दर्शाता है। साधन के रूप में, योग में विभिन्न प्रक्रियाएँ और तकनीकें शामिल होती हैं, जो इस प्रकार के विकास की प्राप्ति के लिए काम में लाई जाती हैं। ये प्रक्रियाएँ और तकनीक यौगिक साहित्य के साधन हैं और ये मिलकर ‘योग’ के रूप में जाने जाते हैं।
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Toggleयोग का महत्त्व -importance of yoga
अच्छा स्वास्थ्य प्रत्येक मनुष्य का अधिकार है। परंतु यह अधिकार व्यक्तिगत, सामाजिक और पर्यावरणीय कारकों पर निर्भर करता है। मुख्य रूप से पर्यावरणीय या सामाजिक कारकों के साथ-साथ हम एक बेहतर रोग प्रतिरक्षा तंत्र और अपनी बेहतर समझ विकसित कर सकते हैं जिससे कि अन्य परिस्थितियाँ हम पर बहुत अधिक प्रतिकूल प्रभाव न डाल पाएँ और हम अच्छा स्वास्थ्य प्राप्त कर सके।
स्वास्थ्य एक सकारात्मक अवधारणा है। सकारात्मक स्वास्थ्य केवल बीमारियों से मुक्त होना ही नहीं है, बल्कि इसमें विशिष्ट कारकों के विरुद्ध प्रतिरोधक क्षमता तथा रोगों के लिए सामान्य प्रतिरक्षा की समुचित मात्रा के विकास के साथ-साथ स्वस्थ होने की ऊर्जावान अनुभूति भी शामिल है। इसके लिए योग एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है क्योंकि इसमें विशाल क्षमता है।
योग, उपचार के सर्वाधिक शक्तिशाली औषधरहित तंत्रों में से एक है। स्वस्थता की इसकी अपनी एक अवधारणा है जिसे बहुत-से लोगों ने वैज्ञानिक रूप से समझा है और प्रस्तुत किया है। योग को अपने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को बढ़ावा देने के लिए जीवनशैली के रूप में अपनाया जा सकता है। यदि योग को विद्यालय स्तर पर प्रारंभ कर दिया जाए तो यह अच्छा स्वास्थ्य प्राप्त करने हेतु स्वस्थ आदतें और स्वस्थ जीवनशैली स्थापित करने में मदद करेगा।
शारीरिक स्तर पर योग बल, सहन-शक्ति, क्षमता और उच्च ऊर्जा के विकास में मदद करता है। यह व्यक्ति को मानसिक स्तर पर उन्नत एकाग्रता, शांति और संतोष के साथ सशक्त भी बनाता है, जो आंतरिक और बाह्य सामंजस्य प्रदान करता है। इस प्रकार विद्यालयी स्तर पर योग का लक्ष्य बच्चों के शारीरिक, मानसिक और भावात्मक स्वास्थ्य के लिए एक सकारात्मक और स्वस्थ जीवनशैली को प्रोत्साहित करना है।
योग इसका इतिहास - History of Yoga
भारत में योग का उद्भव हज़ारों वर्ष पूर्व हुआ। इसकी उत्पत्ति सुख प्राप्त करने और दुखों से छुटकारा पाने की विश्वव्यापी इच्छा के कारण हुई। यौगिक जनश्रुति के अनुसार, शिव को योग का संस्थापक माना गया है। 2700 ईसा पूर्व, पुरानी सिंधु घाटी सभ्यता की बहुत सी मुद्राएँ और जीवों के अवशेष संकेत देते हैं कि प्राचीन भारत में योग प्रचलन में था। परंतु योग का व्यवस्थित उल्लेख पतंजलि के योगदर्शन में मिलता है। महर्षि पतंजलि ने योग के अभ्यासों को सुव्यवस्थित किया। पतंजलि के बाद बहुत-से योगियों ने इसके विकास में अपना योगदान दिया और इसके परिणामस्वरूप योग अब पूरे विश्व में फैल चुका है। इसी क्रम में 11 दिसंबर 2014 को संयुक्त राष्ट्र महासभा (यू.एन.जी.ए.) ने 193 सदस्यों की सहमति से ’21 जून’ को ‘अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस’ के रूप में मनाने का प्रस्ताव पारित किया ।

यौगिक अभ्यास के उद्देश्य
• यौगिक अभ्यास की समझ विकसित करना और इस समझ को अपने जीवन और रहन-सहन के अनुसार प्रयोग में लाना।
• बच्चों में स्वस्थ आदतें और जीवनशैली विकसित करना।
• बच्चों में मानवीय मूल्य विकसित करना।
• यौगिक अभ्यास द्वारा शारीरिक, भावात्मक और मानसिक स्वास्थ्य विकसित करना।
यौगिक अभ्यास के लिए सामान्य दिशानिर्देश
अनौपचारिक रूप में योग प्राथमिक स्तर की कक्षाओं से शुरू किया जा सकता है, परंतु यौगिक अभ्यासों का औपचारिक प्रारंभ कक्षा 6 से ही किया जाना चाहिए। योग पाठ्यक्रम के विषय में बच्चों को परिचित कराना अत्यंत आवश्यक है और उनके लिए कुछ संकेत होने चाहिए कि जो कुछ कक्षा में पढ़ाया जा रहा है, उसके अतिरिक्त वे स्वयं इस विषय का अध्ययन कर सकते हैं। विशेष आवश्यकताओं वाले बच्चों सहित सभी बच्चों द्वारा योगाभ्यास किया जा सकता है। फिर भी विशेष आवश्यकताओं वाले बच्चों को अपनी क्षमता के अनुसार योग्य विशेषज्ञों/योग शिक्षकों से परामर्श करके योगाभ्यास करना चाहिए।
• यौगिक अभ्यास का प्रारंभ शांत चित (मूड) के साथ होना चाहिए, जो एक छोटी प्रार्थना बोलकर प्राप्त किया जा सकता है।
• यह आवश्यक है कि शरीर को सूक्ष्म यौगिक क्रियाओं; जैसे- टखने मोड़ना, घुटने मोड़ना, अँगुलियों के संचलन, हाथ बाँधना, कलाई मोड़ना, कलाई घुमाना, कोहनी मोड़ना, कंधे घुमाना और आँखों का संचलन द्वारा तैयार किया जाना चाहिए। इसके बाद सूर्य नमस्कार का अभ्यास किया जा सकता है।
• योग के शारीरिक और मानसिक, दोनों दृष्टिकोणों से अभ्यास में नियमितता आवश्यक है।
• योग के लिए धैर्य एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है। निराश न हों यदि आप आज किसी आसन को करने या कार्य-संचालन के सही नियम के पालन में सफल नहीं होते हैं। आपको प्रयासों में दृढ़ रहने की आवश्यकता है। समय के साथ सफ़लता अवश्य मिलेगी।
• प्रतिस्पर्धा न करें, बल्कि सहयोग करें। प्रतिस्पर्धा की भावना योग के मार्ग में निश्चित रूप से एक बाधा होती है। प्रतिस्पर्धाएँ हमारे अहम् को पोषित करती हैं जबकि योग हमें अपने अहम् से ऊपर उठने में मदद करता है।
• यौगिक अभ्यास को अनुभवी शिक्षक के मार्गदर्शन में ही सीखना चाहिए।
• अधिकांश आसन, प्राणायाम और क्रियाएँ खाली पेट या बहुत कम भरे पेट में की जानी चाहिए। इन अभ्यासों को शुरू करने से पूर्व मूत्राशय और आँतें खाली कर देने चाहिए।
• योगाभ्यास के लिए सुबह का समय सबसे अच्छा होता है परंतु इसे दोपहर के खाने के तीन घंटे बाद शाम को खाली पेट के साथ भी किया जा सकता है।
• योग को जल्दबाज़ी में या फिर जब आप थके हों, नहीं करना चाहिए।
• यौगिक अभ्यास के लिए एक अच्छा हवादार, साफ़, विघ्नरहित स्थान चुनें।
• योगाभ्यास कठोर सतह पर नहीं करना चाहिए। इस काम के लिए दरी, चटाई या कंबल का उपयोग किया जा सकता है।
• अभ्यास से पूर्व नहा लेना ठीक रहता है। व्यक्ति, मौसम की आवश्यकतानुसार ठंडा या गरम पानी, काम में ले सकता है।
• योगाभ्यास करते समय कपड़े ढीले और आरामदेह होने चाहिए।
• श्वसन यथासंभव सामान्य होना चाहिए। इसमें तब तक परिवर्तन नहीं किया जाता जब तक कि ऐसा करने के लिए विशेष रूप से न कहा जाए।
• योगाभ्यास की सीमाएँ होती हैं। यदि आप किसी समस्या या पुराने रोग से पीड़ित हैं तो इस बारे में योगाभ्यास शुरू करने से पूर्व अपने शिक्षक को अवश्य सूचित कर दें।
• योगाभ्यास को बढ़त के सिद्धांत के आधार पर किया जाना चाहिए। प्रारंभिक अवस्था में, आसान क्रियाओं को लिया जाना चाहिए। बाद में अधिक कठिन को किया जा सकता है। अतः सरल यौगिक क्रियाओं के साथ शुरू करें और फिर धीर-धीरे उन्नत क्रियाओं की ओर बढ़ें।
• एक ही सत्र में यौगिक अभ्यास को अन्य शारीरिक गतिविधियों के साथ जोड़ कर न करें। ये दो अलग प्रकार की गतिविधियाँ हैं और इन्हें अलग-अलग किया जा सकता है।
• यौगिक क्रियाओं को एक बार विद्यालय में ठीक से सीखने के बाद घर पर स्वयं किया जा सकता है।
• योग का एक व्यापक अर्थ है। अतः आसन और प्राणायाम के अलावा व्यक्ति को जीवन में, नैतिक और नीतिपरक मूल्यों को व्यवहार में लाना चाहिए।
सामान्य योगाभ्या
योग बहुत-से अभ्यास; जैसे – यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, षटकर्म, मुद्रा, बंध, धारणा, ध्यान प्रस्तुत करता है। यहाँ हम उन अभ्यासों पर चर्चा करेंगे जो सामान्यतः उपयोग में लाए जाते हैं।
यम और नियम
ये नियमों की प्रारंभिक नियमावली है जो हमारे व्यक्तिगत सामाजिक जीवन में हमारे व्यवहार से सरोकार रखती है। ये नैतिकता और मूल्यों से भी संबंधित हैं।
आसन
आसन का अर्थ है एक विशिष्ट मुद्रा में बैठना, जो आरामदेह हो और जिसे लंबे सम तक स्थिर रखा जा सके। आसन शारीरिक और मानसिक दोनों स्तरों पर स्थायित्व अ आराम देते हैं।
आसनों का अभ्यास करने के लिए दिशानिर्देश
• आसन सामान्यतः खड़े होकर, बैठकर, पेट के बल व कमर के बल लेटने के अनुक्रम में अभ्यास में लाए जाते हैं। यद्यपि अन्यत्र इसका क्रम भिन्न भी हो सकता है।
• आसनों को शरीर और श्वास की जानकारी के साथ करना चाहिए। श्वास और शरीर के अंगों की गति के मध्य समन्वयन होना चाहिए।
• सामान्य नियम के रूप में, शरीर के किसी भाग को ऊपर उठाते समय श्वास अंदर भरें और नीचे लाते समय श्वास बाहर छोड़ें।
• अभ्यास करने वाले को सभी निर्देशों का पालन ईमानदारी से करना चाहिए और उन्हें पूरे ध्यान के साथ अभ्यास करना चाहिए।
• अंतिम स्थिति चरणबद्ध तरीके से प्राप्त करनी चाहिए और शरीर के भीतर आंतरिक सजगता से उसे बंद आँखों के साथ बनाए रखना चाहिए।
• आसनों की अंतिम अवस्था को जब तक आरामदेह हो, बनाए रखना चाहिए। • किसी को भी आसन की सही स्थिति अपनी सीमाओं के अनुसार बनाए रखनी चाहिए और अपनी क्षमता के बाहर नहीं जाना चाहिए।
आसन बनाए रखने की स्थिति में, आदर्श रूप में वहाँ किसी भी प्रकार की कंपन या असुविधा नहीं होनी चाहिए।
• आसन बनाए रखने के समय में वृद्धि करने हेतु बहुत अधिक ध्यान रखें तथा क्षमतानुसार बढ़ाएँ।
• नियमित अभ्यास आवश्यक है। काफी समय तक नियमित और अथक प्रयास वाले प्रशिक्षण के बाद ही आपका शरीर आपका आदेश सुनना प्रारंभ करता है। यदि किन्हीं कारणों से नियमितता में बाधा आती है, तो जितना जल्द हो सके अभ्यास पुनः शुरू कर देना चाहिए।
• प्रारंभिक अवस्था में योगाभ्यास अनुकूलन और पुनः अनुकूलन प्रक्रमों को शामिल करते हैं। अतः आरंभ में व्यक्ति अभ्यास के बाद कुछ थकान अनुभव कर सकता है, परंतु कुछ दिनों के अभ्यास के बाद शरीर और मस्तिष्क समायोजित हो जाते हैं और व्यक्ति स्वस्थता और सुख का अनुभव करने लगता है।
प्राणायाम
प्राणायाम में श्वसन की तकनीक है, जो श्वास या श्वसन प्रक्रिया के नियंत्रण से संबंधित है। प्राणायाम प्रचलित रूप में यौगिक श्वसन कहलाता है जिसमें हमारे श्वसन प्रतिरूप का ऐच्छिक नियंत्रण है।
प्राणायाम श्वसन तंत्र के स्वास्थ्य को प्रभावित करता है, जो व्यक्ति द्वारा श्वास के माध्यम से ली गई वायु की गुणवत्ता और मात्रा पर निर्भर करता है। यह श्वसन की लय और पूर्णता पर भी निर्भर करता है। प्राणायाम द्वारा अभ्यासकर्ता के श्वसन, हृदयवाहिका और तंत्रिका तंत्र लाभकारी ढंग से कार्य करते हैं, जिससे उसे भावात्मक स्थिरता और मानसिक शांति प्राप्त होती है।
प्राणायाम के तीन पहलू होते हैं जिन्हें पूरक, रेचक और कुंभक कहते हैं। पूरक नियंत्रित अंतः श्वसन है; रेचक नियंत्रित उच्छवसन है और कुंभक श्वसन का नियंत्रित धारण (रोकना) है।
प्राणायाम करने हेतु दिशानिर्देश
प्राणायाम यथासंभव आसन करने के बाद करना चाहिए।
शीतली और शीतकारी के सिवाय प्राणायाम में श्वसन नाक द्वारा ही करना चाहिए।
प्राणायाम करते समय चेहरे की मांसपेशियों, आँखों, कानों, गर्दन, कंधों या शरीर के किसी अन्य भाग में तनाव नहीं होना चाहिए।
प्राणायाम करते समय आँखें बंद रहनी चाहिए।
प्रारंभ में, व्यक्ति को श्वसन के सामान्य प्रवाह के बारे में सजग रहना चाहिए। श्वसन और उच्छवसन को धीर-धीरे लंबा करें।
श्वसन पर ध्यान देते समय अपने पेट की स्थिति को देखें जो श्वास अंदर भरते समय फूलता है और श्वास छोड़ते समय अंदर जाता है।
प्रारंभिक अवस्था में व्यक्ति को 1:2 का श्वसन अनुपात बनाए रखना धीरे-धीरे सीखना चाहिए, जिसका अर्थ है उच्छवसन का समय अंतः श्वसन के समय से दोगुना होना चाहिए। परंतु प्राणायाम करते समय ऊपर वर्णित आदर्श अनुपात पाने की जल्दी न करें।
प्रत्याहार
योग के अभ्यास में मस्तिष्क पर नियंत्रण करने हेतु प्रत्याहार का अभिप्राय इंद्रियों के संयम से है। प्रत्याहार में ध्यान को बाह्य वातावरण के विषयों से हटा कर अंदर की ओर लाया जाता है। आत्मनिरीक्षण, अच्छी पुस्तकों का अध्ययन, कुछ ऐसे अभ्यास हैं जो प्रत्याहार में मदद कर सकते हैं।
बंध और मुद्रा
बंध और मुद्रा ऐसे अभ्यास हैं जिनमें शरीर की कुछ अर्ध-स्वैच्छिक और अनैच्छिक मांसपेशियों का नियंत्रण शामिल होता है। ये अभ्यास स्वैच्छिक नियंत्रण बढ़ाते हैं और आंतरिक अंगों को स्वस्थ बनाते हैं।
षट्कर्म/क्रिया (शुद्धिकरण अभ्यास)
षट्कर्म का अर्थ है छः प्रकार के कर्म या क्रियाएँ। यहाँ क्रिया का अर्थ कुछ विशिष्ट कार्यों से है। षट्कर्म में शुद्धिकरण प्रक्रिया है जो शरीर के विशेष अंगों से विजातीय तत्वों को बाहर निकाल कर शुद्ध करती है। शुद्धिकरण शरीर और मस्तिष्क को स्वस्थ रखने में मदद करता है।
हठ योग की पठन सामग्री में छः शुद्धिकरण प्रक्रियाएँ वर्णित हैं। ये हैं नेति, धौति, बस्ति, त्राटक, नौली और कपालभाती। जल, वायु या शरीर के कुछ अंगों के जोड़तोड़ से इनका लाभकारी उपयोग आंतरिक अंगों या तंत्रों को साफ़ करने हेतु किया जाता है।
क्रियाओं के अभ्यास के लिए दिशानिर्देश
• क्रियाएँ खाली पेट करनी चाहिए। अतः बेहतर है कि इन्हें प्रातः काल किया जाए।
• क्रियाएँ किसी विशेषज्ञ की देखरेख में की जानी चाहिए।
• प्रत्येक क्रिया करने का एक विशिष्ट तरीका होता है उसे सुनिश्चित रूप से ठीक उसी प्रकार करना चाहिए।
• विभिन्न वस्तुएँ; जैसे जल, नमक, वायु, प्रत्येक क्रिया में उपयोग में लिए जाते हैं।
ध्यान
ध्यान एक अभ्यास है जो शरीर तथा मन को एकाग्रचित करने में सहायता करता है। ध्यान में, एक वस्तु; जैसे- नाक का अग्रभाग, भूमध्य पर अधिक समय तक ध्यान केंद्रित किया जाता है। यह व्यक्ति में स्वस्थ होने की भावना विकसित करती है तथा स्मरणशक्ति एवं निर्णय लेने की क्षमता को बढ़ाती है।
ध्यान के अभ्यास के लिए दिशानिर्देश
• आसनों और प्राणायाम का अभ्यास ध्यान में काफ़ी लंबे समय तक एक ही अवस्था में बैठने की क्षमता विकसित करने में मदद करते हैं।
• ध्यान का अभ्यास करने के लिए शांत स्थान का चयन करें।
• आंतरिक सजगता में प्रवेश करने के लिए आँखें सरलता से बंद कर लें।
• ध्यान के अभ्यास के दौरान बहुत-से विचार, स्मृति एवं संवेग उत्पन्न होते हैं जो दिमाग में आते हैं। उनके प्रति कोई प्रतिक्रिया नहीं करें।
• प्रारंभ में सामान्यतः श्वसन पर ध्यान केंद्रित करना कठिन होता है। यदि मन इधर- उधर भटकता है तो अपने को दोषी न समझें। धीरे-धीरे दृढ़ अभ्यास से आपका ध्यान आपके श्वास पर केंद्रित हो जाएगा।
• जब आप इस प्रक्रिया में कुछ समय संलग्न रहते हैं, तो आपको पूर्ण शरीर की एक अमूर्त और अविशिष्ट अनुभूति होती है। अब संपूर्ण शरीर की सजगता के साथ ध्यान जारी रखें। किसी कठिनाई में श्वसन की सजगता में लौट जाएँ।
june 21 yoga day theme 2024
‘Yoga for self and society.’